Thursday 7 March 2013

अन्तर्राश्ट्रीय महिला दिवस पर भारतीय नारियों को प्रणाम


     भारतीय नारियों को बड़े-बड़े हक दिलाने के प्रयत्न हो रहे है। साम्राज्यवादी तथा पृथकतावादी शक्तियां पुरूष वर्ग के विरूद्ध भड़का कर औरतों को संगठित कर रही है। पत्नि को घरेलु कार्य के लिए कार्य का मूल्यांकन कर उसका महनताना दिलाने के कानून की तैयारी है। उधर बाजारवाद ने तो औरत को दूध देने वाली गाय की तरह खूंटे पर बांधने का उपक्रम कर लिया है। सारे के सारे विचारवाद अपनी-अपनी तरह से नारी को उत्थान तथा आसमान की ऊ.चाई तक पहुंचाने के लुभावने दृश्य बता रहे है। नारियों को वैधानिक संरक्षण दिलाने तथा पुरूष वर्ग की व्यभिचारी व जुल्मी मानसिकता के विरूद्ध दिल्ली में युवा आक्रोश भी उग्र है।    
     मैं भारत की नारियों को प्रणाम करता हूं जो हक पाने तथा आसमान की ऊंचाई छूने के लिए बड़ी हिम्मत दिखा रही है। परन्तु आगाह भी करना चाहता हूं कि जिन व्यक्तियों, समूहों व राजनीतिज्ञों द्वारा स्त्री जाति को हक दिलाने के लिए उद्वेलित किया जा रहा है उसका प्रयोजन दरअसल नारी जीवन को विसंगतियों व विडम्बनाओं से उबारने की बजाय परिवार, समाज व राष्ट्र को कमजोर करने तथा स्त्री-पुरूष के बीच भेद बढ़ाकर वर्ग संघर्ष व कोलाहल पैदा करने के अतिरिक्त ओर कुछ भी नहीं है।
     जिस राष्ट्र अमेरीका को आज के युवा अपनी प्रेरक शक्ति मान रहे है उस राष्ट्र को आजादी सन् 1776 में मिली और वहां संविधान 1789 में लागू हो गया उसके बावजूद आजादी के 130 वर्ष के बाद महिलाओं ने संघर्ष करके वोट डालने का अधिकार प्राप्त किया तथा 175 वर्ष बाद नागरिक अधिकार कानून के जरिये महिलाओं को बराबरी के अवसर मिले। दुनियां में भारत एकमात्र देश है जहां लोेकतंत्र की स्थापना के प्रथम दिन से ही स्त्री-पुरूष को समानता के अधिकार मिले। इससे भी अधिक तथ्य पूर्ण बात यह है कि भारत की नारियो को प्राप्त स्वतंत्रता व अधिकार बिना किसी संघर्ष के प्राप्त हुए है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में भागीदारी, समान वैधानिक संरक्षण, शिक्षा व रोजगार में समान अवसर भारत व भारत के संविधान की विशेषता है तथा मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा की मंशा भी।
     गत् 25-30 वर्षो से जिस तरह से भारत में महिला अधिकारों के नाम पर एकपक्षीय कानून बनाकर द्वन्द्व बढ़ाया जा रहा है यह कार्य न केवल असंवैधानिक है बल्कि सार्वभौमिक मूल्यों तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व शान्ति लक्ष्य व उद्देश्यों के विपरीत भी है। आज देश के समक्ष उत्पन्न संक्रमण की इस घड़ी में भारतीय नारियों को आत्म चिन्तन करना है कि वैश्विक धरातल पर बदलते हुए युग बोध में भारत की परम्परागत मानसिकता, मर्यादा सम्मत व्यवस्था एवं दोगली सामाजिक संरचना से बाहर निकलने का क्या भारत को विनाश करने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं है, यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि अपनी पहचान को बचाए-बनाए रखने के लिए व्यवस्था के खिलाफ निर्भय होकर कैसे साहसी कदम उठाये जा सकते है ? कानून की बैशाखियों व राजनैतिक संरक्षण की आस जो पाश्चात्य का आधार है, सें तो औरत और अधिक कमजोर व गुलाम बन जायगी और अपना सब कुछ खो देगी जिसे बचाये रखने के लिए भारत के युग पुरूषों (महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानन्द भी सम्मिलित है) ने आगाह किया।

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