Monday 31 December 2012

बाजारवाद से प्रभावित सामाजिक संगठन



     पूरी दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था ने आम आदमी में एसी भौतिकवादी मनोवृति उत्पन्न कर दी है कि किसी भी समाज में केवल उन्हीं व्यक्तियों को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है जो धनी है। इस मनोवृति से धनी वर्ग में साम्राज्यवादी राजनीति का प्रादुर्भाव हो गया। पिछले कुछ वर्षो से धन के बल पर सामाजिक पद प्रतिष्ठा प्राप्त करने की होड़ मची हुई है। देश-दुनिया में उपस्थित इस वातावरण से खण्डेलवाल वैश्य समाज भी कैसे अछूता रह सकता है। इसका असर खण्डेलवाल वैश्य महासभा के हाल ही ग्वालियर में हुए अधिवेशन में देखने को मिला। जाति की इस महापंचायत में महासभा के सारे पवित्र उद्देश्य बाजारवाद की भेंट चढ़ा दिये गये। तीन दिवसीय अधिवेशन में कार्यकारिणी के सदस्य से लेकर संरक्षक पद तक की निलामी के अलावा कोई कार्य नहीं हुआ। जिस बन्धु में जितनी ज्यादा निवेश की क्षमता रही उसने उसके अनुकूल पद प्राप्त किया। देखा जाय तो महासभा के एक सौ वर्षो के गौरवमय इतिहास को ग्वालियर में कलंकित कर दिया गया।
     खण्डेलवाल वैश्य महासभा का एक सौ वर्षों का अतीत इतना उज्वल और महान रहा है कि समाज के आम बन्धु ने अपने सामर्थ्य के अनुसार सदैव भागीदारी निभाई। किसी भी बच्चे को अर्थाभाव के कारण शिक्षा से वंचित नहीं होने दिया और न ही किसी विधवा नारी को गुजारे के लिए भटकने को विवश होना पड़ा। वैसे भी असहाय व्यक्ति की सहायता के लिए उठ खड़ा होना पूरे समाज का सामुहिक दायित्व होता है। यदि कोई समाज विधवाओं के आंसू पोंछने का दायित्व नहीं निभा सकता तथा कुछ अभावग्रस्त बच्चों को शिक्षा नहीं दे सकता वह पूरा समाज अमानुषिक कृत्य का भागीदार बनता है तथा समाज का संगठन महत्वहीन बन जाता है।
     ग्वालियर में चन्द धनी व्यक्तियों द्वारा महासभा के उद्देश्यों को पूरा करने का दम्भ प्रदर्शित करने तथा संगठन पर कब्जा करने की मानसिकता से सेवा की भावना को जबरदस्त ठेस पहुंची है। इस पाखण्डी रूप के प्रति समाज के आम जन की सहमति व विनम्रता के भाव से किसी भी जाति की स्थिति दिनो दिन छीजती है, उसकी कमजोरी बढ़ती है। परिणाम यह होता है कि उनकी रचनात्मक कलाओं और प्रवृतियों का क्षय हो जाता है तथा पूरी जाति मानसिक दृष्टि से धनी वर्ग की गुलाम हो जाती है। समाज में आम बन्धु की भागीदारी न्यून होती जा रही है। गत कुछ वर्षों से खण्डेलवाल वैश्य महासभा के संचालन का जिम्मा कुछ लोगों ने कैन्द्रित कर लिया है जिसके खतरे अधिक है।
     ग्वालियर सम्मेलन में जयपुर की खण्डेलवाल वैश्य हितकारिणी सभा के विवाद और गंगा मन्दिर से हितकारिणी सभा का आधिपत्य समाप्त करने के लिए बाहुबल के उपयोग की धमकी देना तथा समाज के पत्रों में महासभा के पदाधिकारियों के विरूद्ध छापने वालों को मंच द्वारा चुनौती देना व सम्मैलन स्थल के बाहर निकालना घटिया मानसिकता व अहंकार का प्रदर्शन है।
     एसी मानसिकता के कारण ही गत कुछ वर्षों में समाज में मुकदमेबाजी, कुर्सी रेस व टांग खिचाई और क्लेश बढ़े है जिसमें समाज गुटबाजी का शिकार हुआ है। इस प्रक्रिया से हम समाज की भावी पीढ़ी को शान्ति, सद्भाव व सदाचार तो नही दे पायेंगे, यह मेरा दृढ़ विश्वास है।
     धनी वर्ग की इस तरह की मानसिकता के कारण ही स्वामी विवेकानन्द जैसे संत में भी धनिक वर्ग के प्रति कभी आदर भाव नहीं रहा। वे कहते थे कि ऊंची श्रेणी के लोग तो शरीर और नैतिकता दौनों ही दृष्टियों से मर चुके है। एसे लोगों के सामने याचक बनकर व्यक्ति अपना व समाज दौनों का अपमान करता है।
     वैसे भी संसार में बौद्धिक क्षमता की दृष्टि से खण्डेलवाल समाज के सांस्कृतिक गुरू सन्त कवि सुन्दरदास एसी विरासत है जिसके विचारों में पूरी दुनिया को प्रभावित करने की ताकत है जिनके आध्यात्मिक विचारों और आदर्शो का प्रचार यदि देश-दुनिया में किया जाय तो संसार में एक नयी कल्पना, एक नए जीवन का सूत्रपात हो सकता है।
     मै जानता हूं कि मेरे इन विचारों से पूरा समाज रूष्ट होगा किन्तु गुलाम प्रथा व गुलाम मानसिकता से ग्रस्त हो रहे समाज बन्धुओं को सचेत करना मैं अपना दायित्व समझता हूं। उसी दायित्व के निर्वहन की दृष्टि से में खण्डेलवाल समाज को उसके गौरवशाली भविष्य की राह पर ले जाने के लिए संकल्पबद्ध रहूंगा।